Monday, November 30, 2009

गधे भी गोनेर हो आए

मृगेंद्र पांडेय

कुछ चीजे अचानक हो जाती है। उस दिन भी हम लोग बैठे ही थे अपने दोस्त के पास। उसे प्यार से हम सभी गवाह कहते हैं। उस दिन एक मामले को सुलझाने उसके पास गए थे। इंतजार किसी का नहीं कर रहे थे, लेकिन बुलावा आ गया। हम लोगों ने मंथन किया कि जाएं कि नहीं। लेकिन दोस्त इतना प्यारा था कि उसे मना भी नहीं कर सकते थे। सबने ठान ली, और निकल पड़े अपने उड़नखटोले पर सवार होकर। शाम छह बज रहे थे। लगातार फोन की घंटियां खनखना रहीं थी। कोई भी फोन रिसिव करने के मूड में नहीं था, क्योंकि सबकी गाड़ी हवा से बात कर रही थी। मैं खुद पीछे बैठा नए बसनेवाले जयपुर शहर को खुली आंखों से निहार रहा था। जाना कहां है यह तो सबको पता था, लेकिन रास्ता लगातार भटकते जा रहे थे। आदिवासी नेता यह कह रहा था कि रास्ता तो सीधा है, लेकिन कोई मानने को तैयार नहीं था।

नंवबर में छह बजते-बजते अंधेरा होने लगता है। धीरे-धीरे सूरज भी हमको सड़क पर छोड़ता दुनिया को चंदा मामा के हाले करने की तैयारी में था। हम लोगों भी 150 घोड़ों की ताकत के साथ दौड़े चले जा रहे थे। पहाड़ देखकर लगा कि राजस्थान से बाहर आने लगा हूं। दोस्तों ने बताया कि जयपुर शहर में लगे अधिकांश पत्थर यहीं से गए हैं। अब तो यह खंडहर हो गया है, सो सरकार ने यहां खनन पर रोक लगा दी है। अंधेरा होने से पहले हम लोग पहुंच गए गोनेर में धर्मशाला के सामने। यहां सभी समाज की अपनी-अपनी धर्मशाला है। लोग हर रविवार को यहां गोठ होती है। सबकुछ देशी घी में। खीर, मालपुआ। सामने फारुख की गाड़ी खड़ी थी। लाल रंग की। यामाहा की फेजर। देखने में बड़ी स्टाइलिस लग रही थी। मैं बोला देख लो उसी की है ना। कहीं ऐसा न हो कि गलत धर्मशाला के सामने रुककर खाने का जुगाड़ कर रहे हैं। कुछ ही पलों में फारुख ने बोला, भैया अंदर आ जाओ। अंधेरा हो रहा था, उसने बोला पहले खा लेते हैं फिर बात करेंगे।

हम पांच अंदर गए और जुट गए खाने में। मुकेश, शूटर, राजेश। सबने छककर मालपुए खाए। बने भी काफी अच्छे थे। हमारे उत्तर प्रदेश में इस तरह के आयोजन कम ही होते हैं। एक बात और। राजस्थान में आकर देखा कि देशी घी का यहां जमकर क्रेज है। रोटी को देशी घी में डूबा दिया जाता है। यहां खाने में आमतौर पर लोग थोड़ी मोटी रोटी बनाते हैं और उसमें जमकर घी लगाते है। सुधीर ने भी दिवाली के समय अपने घर में बने देशी घी की जलेबी और लड्डू की जमकर तारीफ की ही थी। यहां लोगों को पनीर का भी स्वाद देशी घी में ही आता है। अगर देशी घी नहीं है तो न तो ये लोग पनीर बनाएंगे, न अंडे। बहरहाल, यहां कुछ सात्विक बातें हो रही थी। हम लोग धर्मशाल में थे। किसी की खुशी में शामिल होने। राजेश बोला कि तुम लोग तो जल्दी उठ गए नहीं तो दो-चार पर और हाथ साफ करता। अब लौटने की तैयारी थी। दोस्त ने सभी को उस सज्जन पुरुष से मिलाया, जिन्होंने हमें बताया कि हमारी मन्नत पूरी हो गई है, इसलिए ये आयोजन किया गया है।

अब लौटने की बेला थी। गए दो गाड़ियों से थे, लेकिन फारुख भी वापस आ रहा था तो तीन गाड़ी हो गई। वही कालेज के दिनों की तरह। पूरी सड़क पर हम तीन। एक साथ लगा ली गाड़ी और निकल पड़े मस्ती में। कोई कार वाले भाईसाहब लंबे समय से हार्न दिए जा रहा था। हममे से कोई भी सुनने को तैयार नहीं था। मस्ती में मस्तानों की तरह। गाड़ी बढ़ती जा रही थी। गप्पों की आवाज जोर-जोर से दूसरे लोगों को परेशान कर ही रही होगी। लग रहा था कि कालेज के दिनों में पहुंच गए हैं। वही छात्रसंघ। वही नेतागिरी। सब कुछ एकदम से पीछे चला गया था। हम लोग खोते जा रहे थे कि पहाड़ के पास के एक मोड़ पर अब तीन से दो होने की तैयारी थी। फारुख ने बोला भैया अब हम चलते हैं। कैसा लगा आपको यह आयोजन। मेरा जवाब ठीक वैसा ही था। मजा आ गया यार। जयपुर में ऐसा भी होता है। उस समय जयपुर में मन भी कम ही लगता था। न कोई दोस्त, न कोई सर्किल। खबरों के बीच उठना बैठना। जो अपनी कभी आदत नहीं रही। छोटी-छोटी पार्टियों में जाने से थोड़ी बोरियत कम हो जाती थी।

अब जब हम बिछड़ने की तैयारी में थे, तब दोस्त ने बताया पहले यहां आने के लिए काफी कड़ी मशक्कत के बाद लोग पहुंचते थे। सड़क काफी उबड़-खाबड़ थी। लोग गोनेर पहुंचने को अपनी उपलब्धि के तौर पर देखते थे। कठिनाई से पहुंचने के कारण कहावत थी कि गधे भी गोनेर हो आए। अब आप भी। तेज ठहाके के बीच गाड़ियों ने लाइन बदली और सरपट दौड़ते जयपुर को छूने के लिए एक बार फिर हम पांच गधे अपनी धुन में सवार हो चले।

(मेरी कहानी के पहले पाठक दिनेश गौतम हैं। इन्हें हम प्यार से क्राइम आधारित कहते हैं। उन्होंने कहा कि आप लोग गधे का मजाक उड़ा रहे हो, एकादशी पर वहां आप जैसे लोगों का ही मेला लगता है।)

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