Friday, May 6, 2011

वाय आलवेज फायर कैंडल फार जस्टिस

मृगेंद्र पांडेय

न्याय की अपनी सीमाएं होती हैं। सभी को न्याय मिले यह जरूरी भी नहीं है, लेकिन न्याय देने वालों का दावा रहता है कि वे हमेशा अंतिम न्याय देकर ही अपनी कलम को रोकते हैं। दरअसल उनकी कलम रूकरने से पहले वह अंतिम आदमी सोचता है कि उनक भला होगा। लेकिन क्या हमेशा वास्तविक न्याय हो पाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि पिछले एक दशक में न्याय के लिए लोगों को सडकों पर उतरते देखा गया है। जेसिका लाल हत्याकांड से लेकर निरूपमा पाठक की हत्या तक। अब न्याय के लिए सडक पर कैंडल जलाना पडता है। जबकि भारत को दीप और दियों का देश माना जाता है। फिर हम लोग कब तक मोमबत्ती जलाकर न्याय मांगेंगे। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में न्याय के लिए मोमबत्ती जलाने की परंपरा क्या जायज है। यह सवाल इसलिए भी क्योंकि बिनायक सेन को हाल ही में माननीय न्यायालय ने राजद्रोह के अपराध मे उम्रकैद की सजा सुनाई है। इसके विरोध में पूरे देश का बुदिृधजीवी वर्ग प्रदर्शन कर रहा है और न्याय की मांग कर रहा है।

इससे पहले जेसिका लाल के लिए मांगा था। अब उस पर फिल्म बना दी गई है। उस वास्तविक संवेदना से दूर, करोडो का कारोबार करने के लिए। संवेदनाओं की कैंडिल पर करोबार की गाडी। कैसे चलती है, उसकी एक बानगी यह है। बेहद पुरानी कहानी को लेकर बनी फिल्म नो वन कील जेसिका से कुछ नया करने की उम्मीद थी। लेकिन वहीं घिसी-पिटी स्टोरी ने सोचने पर मजबूर कर दिया है कि न्याय जैसी गंभीर प्रक्रिया पर इतनी सतही फिल्म कैसे बनाई जा सकती है। वो भी उस समय जब सभी को न्याय की दरकार है। मेरी सरकार बिनायक सेन को सजा दे देती है। दोहरा चरित्र उस समय सामने आता है जब उसी की योजनाओं को प्रदेश में लागू करके वाहवाही लूट रहे हैं। आज शहर में रहने वालों को सरकार न तो साफ पानी पिला पा रही है, न ही साफ हवा। ऐसे में न्याय को सतही बनाने की फिल्मिया कोशिश ठीक उसी तरह है, जैसे किसी को साफ पानी बताकर नगर निगम का गंदा पानी पिला दिया जाए।

दरअसल यह भी उसी समाज के हिस्से हैं, जो सत्ता के बेहद करीब रहता है। जिसकी गलियां आम आदमी के घरों के पास उस समय ही गुजरती हैं, जब कोई फिदाइन दस्ता वहां बम फोड जाता है। या फिर कोई बडी इमारत गिरकर उनकी चमचमाती गाडी के गुजरने वाली सडकों का रास्ता रोक देती है। उस समय न्याय की बात होती है। न्याय पर सवाल होता है। तब बिना कैंडिल मार्च के ही समस्याओं को सुलझा लिया जाता है। कैंडिल तो उस आम आदमी को जलाना पडता है, जिसकी हत्या तो की जाती है, लेकिन उसे अपने पडोसी को यह बताने से मना किया जाता है। अब तक भारत में पांच मामलों मे मोमबत्ती जलाकर न्याय की मांग की गई है। क्या सिर्फ पांच मामलों में ही आम आदमी को न्याय नहीं मिला है! इसका जवाब आप दीजिए।

गांधी का क्या अपराध था?

मृगेंद्र पांडेय

हवा तेज चलने को तैयार तो है, लेकिन रास्ते उसे रोक रहे हैं। दो अक्टूबर को गांधी जी को लोग नमन करने के बाद विदाई दे चुके हैं। हम भी विदाई देने की तैयारी कर रहे हैं। सब कुछ ठीक रहा तो नए दौर के गांधी की योजना पर काम किया जा सकता है। एक ऐसा गांधी जो न तो सोचता है, न बोलता है। जिसके पास न तो आगे जाने के रास्ते हैं, न पीछे लौटने पर कोई ठिकाना। हमारे डाक्टर साहब कहते हैं कि वो आदमी ही क्या जो अपना कमिटमेंट पूरा न कर सके। फिर हम कैसे किसी ऐसे गांधी को स्वीकार कर लेंगे, जो न सोचता हो, न बोलता हो।

आखिर ऐसे गांधी की किस समाज को जरूरत है। सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ में सलवा जुडूम को बंद करने का राज्य सरकार को निर्देष दिया। सरकार की क्या मजाल जो कोर्ट के आदेष-निर्देष को न मानें। लेकिन बिना बोलने वाली सरकार की गलतियां कम ही लोग आंक पाते हैं। अंधे-बहरों को सुनाने के लिए धमाके की जरूरत होती है। यह मैं नहीं भगत सिंह ने कहा था।

तो क्या प्रदेष में रहने वाले लोग, राजनेता, अधिकारी अंधे बहरे हो गए हैं। या फिर अंधे बहरे बने रहने में ही भला समझ रहे हैं। गांधी जी को भी उस समय दुख हुआ होगा, जब दंतेवाडा में उन्हीं के आश्रम को सरकार के नुमाइंदों ने तोड दिया था। अब उसी सरकार के नुमाइंदों ने गांधी के नाम का सहारा लेना षुरू कर दिया है। पता है बापू के नाम पर सौ खून मांफ। तो लग गए गांधी को भूनाने की फिराक में। अब नक्सलियों के खिलाफ गांधीवादी तरीके से विरोध करना है। इसमें वही लोग षामिल हो रहे हैं, जो कभी सलवा जुडूम का झंडा उठाकर बडी बडी बातें किया करते थे।

भगवा और लाल में ज्यादा अंतर नहीं होता है। अब तो बाद गणवेष को बदलने तक की होने लगी है। यह एक षुरुआत है। कहीं ऐसा न हो कि प्रदेष की भाजपा सरकार अपने झंडे में कमल के बदले गांधी का चरखा न षामिल कर ले। अब बस्तर में गांधीवादी तरीके से नक्सलियों का विरोध होगा।

जय गांधी! सही काम में न सही, कम से कम इन लोगों ने गलत काम में तो आपके नाम का उपयोग करना षुरू कर दिया। अयोध्या के फैसले का पता होता तब भी क्या गांधी के नाम का इस्तेमाल किया जाता।


आजकल रायपुर में राजस्थान पत्रिका के साथ आ गया हूं। सोचा गांधी जी पर कुछ लिखू तो लिख दिया। वैसे यहां गांधी जयंती के दिन 200 लोग जहरीला भोजन खाने के बाद बीमार हो गए। यही सच्चाई है। अब हम इसे बरदाश्त करें या झेले। हमारी मर्जी।