मृगेंद्र पांडेय
न्याय की अपनी सीमाएं होती हैं। सभी को न्याय मिले यह जरूरी भी नहीं है, लेकिन न्याय देने वालों का दावा रहता है कि वे हमेशा अंतिम न्याय देकर ही अपनी कलम को रोकते हैं। दरअसल उनकी कलम रूकरने से पहले वह अंतिम आदमी सोचता है कि उनक भला होगा। लेकिन क्या हमेशा वास्तविक न्याय हो पाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि पिछले एक दशक में न्याय के लिए लोगों को सडकों पर उतरते देखा गया है। जेसिका लाल हत्याकांड से लेकर निरूपमा पाठक की हत्या तक। अब न्याय के लिए सडक पर कैंडल जलाना पडता है। जबकि भारत को दीप और दियों का देश माना जाता है। फिर हम लोग कब तक मोमबत्ती जलाकर न्याय मांगेंगे। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में न्याय के लिए मोमबत्ती जलाने की परंपरा क्या जायज है। यह सवाल इसलिए भी क्योंकि बिनायक सेन को हाल ही में माननीय न्यायालय ने राजद्रोह के अपराध मे उम्रकैद की सजा सुनाई है। इसके विरोध में पूरे देश का बुदिृधजीवी वर्ग प्रदर्शन कर रहा है और न्याय की मांग कर रहा है।
इससे पहले जेसिका लाल के लिए मांगा था। अब उस पर फिल्म बना दी गई है। उस वास्तविक संवेदना से दूर, करोडो का कारोबार करने के लिए। संवेदनाओं की कैंडिल पर करोबार की गाडी। कैसे चलती है, उसकी एक बानगी यह है। बेहद पुरानी कहानी को लेकर बनी फिल्म नो वन कील जेसिका से कुछ नया करने की उम्मीद थी। लेकिन वहीं घिसी-पिटी स्टोरी ने सोचने पर मजबूर कर दिया है कि न्याय जैसी गंभीर प्रक्रिया पर इतनी सतही फिल्म कैसे बनाई जा सकती है। वो भी उस समय जब सभी को न्याय की दरकार है। मेरी सरकार बिनायक सेन को सजा दे देती है। दोहरा चरित्र उस समय सामने आता है जब उसी की योजनाओं को प्रदेश में लागू करके वाहवाही लूट रहे हैं। आज शहर में रहने वालों को सरकार न तो साफ पानी पिला पा रही है, न ही साफ हवा। ऐसे में न्याय को सतही बनाने की फिल्मिया कोशिश ठीक उसी तरह है, जैसे किसी को साफ पानी बताकर नगर निगम का गंदा पानी पिला दिया जाए।
दरअसल यह भी उसी समाज के हिस्से हैं, जो सत्ता के बेहद करीब रहता है। जिसकी गलियां आम आदमी के घरों के पास उस समय ही गुजरती हैं, जब कोई फिदाइन दस्ता वहां बम फोड जाता है। या फिर कोई बडी इमारत गिरकर उनकी चमचमाती गाडी के गुजरने वाली सडकों का रास्ता रोक देती है। उस समय न्याय की बात होती है। न्याय पर सवाल होता है। तब बिना कैंडिल मार्च के ही समस्याओं को सुलझा लिया जाता है। कैंडिल तो उस आम आदमी को जलाना पडता है, जिसकी हत्या तो की जाती है, लेकिन उसे अपने पडोसी को यह बताने से मना किया जाता है। अब तक भारत में पांच मामलों मे मोमबत्ती जलाकर न्याय की मांग की गई है। क्या सिर्फ पांच मामलों में ही आम आदमी को न्याय नहीं मिला है! इसका जवाब आप दीजिए।
Friday, May 6, 2011
गांधी का क्या अपराध था?
मृगेंद्र पांडेय
हवा तेज चलने को तैयार तो है, लेकिन रास्ते उसे रोक रहे हैं। दो अक्टूबर को गांधी जी को लोग नमन करने के बाद विदाई दे चुके हैं। हम भी विदाई देने की तैयारी कर रहे हैं। सब कुछ ठीक रहा तो नए दौर के गांधी की योजना पर काम किया जा सकता है। एक ऐसा गांधी जो न तो सोचता है, न बोलता है। जिसके पास न तो आगे जाने के रास्ते हैं, न पीछे लौटने पर कोई ठिकाना। हमारे डाक्टर साहब कहते हैं कि वो आदमी ही क्या जो अपना कमिटमेंट पूरा न कर सके। फिर हम कैसे किसी ऐसे गांधी को स्वीकार कर लेंगे, जो न सोचता हो, न बोलता हो।
आखिर ऐसे गांधी की किस समाज को जरूरत है। सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ में सलवा जुडूम को बंद करने का राज्य सरकार को निर्देष दिया। सरकार की क्या मजाल जो कोर्ट के आदेष-निर्देष को न मानें। लेकिन बिना बोलने वाली सरकार की गलतियां कम ही लोग आंक पाते हैं। अंधे-बहरों को सुनाने के लिए धमाके की जरूरत होती है। यह मैं नहीं भगत सिंह ने कहा था।
तो क्या प्रदेष में रहने वाले लोग, राजनेता, अधिकारी अंधे बहरे हो गए हैं। या फिर अंधे बहरे बने रहने में ही भला समझ रहे हैं। गांधी जी को भी उस समय दुख हुआ होगा, जब दंतेवाडा में उन्हीं के आश्रम को सरकार के नुमाइंदों ने तोड दिया था। अब उसी सरकार के नुमाइंदों ने गांधी के नाम का सहारा लेना षुरू कर दिया है। पता है बापू के नाम पर सौ खून मांफ। तो लग गए गांधी को भूनाने की फिराक में। अब नक्सलियों के खिलाफ गांधीवादी तरीके से विरोध करना है। इसमें वही लोग षामिल हो रहे हैं, जो कभी सलवा जुडूम का झंडा उठाकर बडी बडी बातें किया करते थे।
भगवा और लाल में ज्यादा अंतर नहीं होता है। अब तो बाद गणवेष को बदलने तक की होने लगी है। यह एक षुरुआत है। कहीं ऐसा न हो कि प्रदेष की भाजपा सरकार अपने झंडे में कमल के बदले गांधी का चरखा न षामिल कर ले। अब बस्तर में गांधीवादी तरीके से नक्सलियों का विरोध होगा।
जय गांधी! सही काम में न सही, कम से कम इन लोगों ने गलत काम में तो आपके नाम का उपयोग करना षुरू कर दिया। अयोध्या के फैसले का पता होता तब भी क्या गांधी के नाम का इस्तेमाल किया जाता।
आजकल रायपुर में राजस्थान पत्रिका के साथ आ गया हूं। सोचा गांधी जी पर कुछ लिखू तो लिख दिया। वैसे यहां गांधी जयंती के दिन 200 लोग जहरीला भोजन खाने के बाद बीमार हो गए। यही सच्चाई है। अब हम इसे बरदाश्त करें या झेले। हमारी मर्जी।
हवा तेज चलने को तैयार तो है, लेकिन रास्ते उसे रोक रहे हैं। दो अक्टूबर को गांधी जी को लोग नमन करने के बाद विदाई दे चुके हैं। हम भी विदाई देने की तैयारी कर रहे हैं। सब कुछ ठीक रहा तो नए दौर के गांधी की योजना पर काम किया जा सकता है। एक ऐसा गांधी जो न तो सोचता है, न बोलता है। जिसके पास न तो आगे जाने के रास्ते हैं, न पीछे लौटने पर कोई ठिकाना। हमारे डाक्टर साहब कहते हैं कि वो आदमी ही क्या जो अपना कमिटमेंट पूरा न कर सके। फिर हम कैसे किसी ऐसे गांधी को स्वीकार कर लेंगे, जो न सोचता हो, न बोलता हो।
आखिर ऐसे गांधी की किस समाज को जरूरत है। सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ में सलवा जुडूम को बंद करने का राज्य सरकार को निर्देष दिया। सरकार की क्या मजाल जो कोर्ट के आदेष-निर्देष को न मानें। लेकिन बिना बोलने वाली सरकार की गलतियां कम ही लोग आंक पाते हैं। अंधे-बहरों को सुनाने के लिए धमाके की जरूरत होती है। यह मैं नहीं भगत सिंह ने कहा था।
तो क्या प्रदेष में रहने वाले लोग, राजनेता, अधिकारी अंधे बहरे हो गए हैं। या फिर अंधे बहरे बने रहने में ही भला समझ रहे हैं। गांधी जी को भी उस समय दुख हुआ होगा, जब दंतेवाडा में उन्हीं के आश्रम को सरकार के नुमाइंदों ने तोड दिया था। अब उसी सरकार के नुमाइंदों ने गांधी के नाम का सहारा लेना षुरू कर दिया है। पता है बापू के नाम पर सौ खून मांफ। तो लग गए गांधी को भूनाने की फिराक में। अब नक्सलियों के खिलाफ गांधीवादी तरीके से विरोध करना है। इसमें वही लोग षामिल हो रहे हैं, जो कभी सलवा जुडूम का झंडा उठाकर बडी बडी बातें किया करते थे।
भगवा और लाल में ज्यादा अंतर नहीं होता है। अब तो बाद गणवेष को बदलने तक की होने लगी है। यह एक षुरुआत है। कहीं ऐसा न हो कि प्रदेष की भाजपा सरकार अपने झंडे में कमल के बदले गांधी का चरखा न षामिल कर ले। अब बस्तर में गांधीवादी तरीके से नक्सलियों का विरोध होगा।
जय गांधी! सही काम में न सही, कम से कम इन लोगों ने गलत काम में तो आपके नाम का उपयोग करना षुरू कर दिया। अयोध्या के फैसले का पता होता तब भी क्या गांधी के नाम का इस्तेमाल किया जाता।
आजकल रायपुर में राजस्थान पत्रिका के साथ आ गया हूं। सोचा गांधी जी पर कुछ लिखू तो लिख दिया। वैसे यहां गांधी जयंती के दिन 200 लोग जहरीला भोजन खाने के बाद बीमार हो गए। यही सच्चाई है। अब हम इसे बरदाश्त करें या झेले। हमारी मर्जी।
Wednesday, January 26, 2011
हमारी खदान
यह रायपुर जिले में विधानसभा से २० किलॊमीटर दूर धनसूली में हैा बहुत दिनॊं बाद हम चारॊं भाई यहां एक साथ पहुंचे थेा भाई नागेंद्र पांडेय और भाई सत्येंद्र पांडेय पहले भी जाते थे इस बार मैं और टिल्लू भी साथ गए थे।
एक शाट धोबी घाट
मृगेंद्र पांडेय
आमिर खान की धोबी घाट एक शाट में निपट गई। कई लोगों ने कहा कि घाट के नजारे की झलक मिली, देखने को तो मिला ही नहीं। रविवार को शहर के मल्टीप्लेक्स में धोबीघाट देखने के लिए कम ही दर्शक नजर आए। समीक्षक लगातार कह रहे हैं कि पहले तीन दिन में ही कारोबार कर लिया, लेकिन वो पहले तीन दिन कौन से हैं, यह पता नहीं चला।
शुक्रवार को रिलिज डेढ घंटे की नान स्टाप फिल्म। पापकान खाने का समय भी नहीं दिया। एक मित्र अंधेरे में दूसरे के पैरों में अपना पैर फंसा बैठे। गिरे, लेकिन गंभीरता इतनी हावी थी कि किसी ने संवेदना तक नहीं व्यक्त की। सीन चूहे मारते फोटो लेती हिरोइन और हिरोइन को देखकर भागता हीरो नंबर दो। नंबर दो इसलिए क्योंकि हम जहां से खडे होते हैं लाइन वहीं से षुरू होती है। ऐसे में आमिर ही नंबर वन होंगे।
पूरी फिल्म में एक चीज समझ में नहीं आई। अगर किसी को समझ आई हो तो जरूर बताएं। आमिर जो तीन डीवीडी देख रहे थे, उसका क्या हुआ। क्या हीरो नंबर दो का दोस्त ही उस खूबसूरत महिला का पति था। या कोई और। यहां लगता है कि कुछ छूट गया। या फिर शयद मैं पकड ही नहीं पाया। बहरहाल इस समय धोबी घाट देखने के बाद इंडन ओशन के गाने सुन रहा हूं। काफी मशक्कत के बाद खोज पाया हूं। आप जरूर देखें धोबी घाट और बताएं कि डीवीडी वाली कहानी का क्या हुआ।
आमिर खान की धोबी घाट एक शाट में निपट गई। कई लोगों ने कहा कि घाट के नजारे की झलक मिली, देखने को तो मिला ही नहीं। रविवार को शहर के मल्टीप्लेक्स में धोबीघाट देखने के लिए कम ही दर्शक नजर आए। समीक्षक लगातार कह रहे हैं कि पहले तीन दिन में ही कारोबार कर लिया, लेकिन वो पहले तीन दिन कौन से हैं, यह पता नहीं चला।
शुक्रवार को रिलिज डेढ घंटे की नान स्टाप फिल्म। पापकान खाने का समय भी नहीं दिया। एक मित्र अंधेरे में दूसरे के पैरों में अपना पैर फंसा बैठे। गिरे, लेकिन गंभीरता इतनी हावी थी कि किसी ने संवेदना तक नहीं व्यक्त की। सीन चूहे मारते फोटो लेती हिरोइन और हिरोइन को देखकर भागता हीरो नंबर दो। नंबर दो इसलिए क्योंकि हम जहां से खडे होते हैं लाइन वहीं से षुरू होती है। ऐसे में आमिर ही नंबर वन होंगे।
पूरी फिल्म में एक चीज समझ में नहीं आई। अगर किसी को समझ आई हो तो जरूर बताएं। आमिर जो तीन डीवीडी देख रहे थे, उसका क्या हुआ। क्या हीरो नंबर दो का दोस्त ही उस खूबसूरत महिला का पति था। या कोई और। यहां लगता है कि कुछ छूट गया। या फिर शयद मैं पकड ही नहीं पाया। बहरहाल इस समय धोबी घाट देखने के बाद इंडन ओशन के गाने सुन रहा हूं। काफी मशक्कत के बाद खोज पाया हूं। आप जरूर देखें धोबी घाट और बताएं कि डीवीडी वाली कहानी का क्या हुआ।
Monday, November 22, 2010
हम कब सॊचेंगे
मृगेंद्र पांडेय
मैं गांव गया था। किसी दोस्त की शादी थी। पिछले साल दिसंबर का महीना था। जल्द ही एक बार फिर से आ जाएगा दिसंबर। हमारे गांव में थोड़ी-थोड़ी ठंड शुरू हो जाती है। हमारे रायपुर में दिसंबर आने को है, लेकिन ठंड ने दस्तक तक नहीं दी। बनारस के पास गाजीपुर रोड पर हमारा गांव बर्थरा कला है। मुझे याद है कि हमारे गांव में किसी भी व्यक्ति ने कोई बड़ा काम नहीं किया। बड़ा काम का मतलब ऐसा जो राष्ट्रीय चरित्र का हो। ऐसा काम जिसे लोग याद करने के लिए हमारे गांव को याद करें। यह मैं अपने गांव की बुराई नहीं कर रहा हूं। जब भी मैं अपने गांव के बारे में सोचता हूं तो लगता है कि हमारे गांव को कुछ और आगे होना चाहिए। ठीक उसी तरह जैसे रायपुर से ठंड के मामले में आगे है।
रायपुर राजधानी है। बनारस को भी राजधानी बनाने की तैयारी चल रही है। मायावती के तीन प्रदेश के कांसेप्ट को अगर केंद्र सरकार मान लेगी तो पूर्वांचल की राजधानी बनारस की होगी। बनारस भी बहुत बड़ा है। एक बार तो उत्तर प्रदेश सरकार ने उसे काटकर तीन जिले बना दिए। सोचों इतना बड़ा जिला था हमारा बनारस। इसी जिले के सबसे दूर के इलाके से एक आदमी रात ११ बजे बनारस में आया। हम लोग भी पहुंचे थे। यूपी कालेज के बाजू में चांदमारी अस्पताल में सांप काटने का इलाज होता है। यूपी कालेज राजा उदय प्रताप सिंह के नाम पर रखा गया है। यहां के लिए प्रचलित है कि ठाकुर ही अध्यक्ष बनेगा। वैसे इस मिथक को एक ब्राह्मण ने तोड़ दिया। शायद उसे लोग बाबा बुलाते थे। बिहार में ब्राह्मणों को बाबा बोला जाता है। खैर भटककर बिहार पहुंचने से पहले चांदमारी वापस लौटते हैं।
दिसंबर की ठंडी रात। भाई साहब की सफारी गाड़ी में हम पांच लोग सवार थे। दो लोगों को और बठाने की बात आई तो लोगों ने नाक भौं सिकोडना शुरू कर दिया। बोल रहे थे कि बैठेंंगे कहां। रात को रामधनी चाचा को सांप ने काट लिया था। हम लोग उनको दिखाने चांदमारी जा रहे थे। जैसे ही हम चांदमारी पहुंचे, डाक्टर ने रामधनी चाचा को कमरे में डाल दिया। बाकी लोगों को बोला कि आप लोग बाहर बैठें। हम सभी लोग बाहर आ गए। थोड़ी देर में एक गाड़ी आई। गाड़ी थी टाटा ४०७। गाड़ी से एक-एक करके लोग बाहर निकलने लगे। थोड़ी देर में गाड़ी से ४६ लोग बाहर निकले। यह सभी पीछे बैठे थे। गाड़ी में आगे सिर्फ ड्राइवर, गांव के सरपंच और उनके दो चेले बैठे थे।
हम सभी लोग देखकर दंग रह गए। उनसे पूछा कि कहां से आए हो। उसमें से एक आदमी ने थोड़ी अलग-विचित्र भाषा में बताया कि सोनभद्र से आए हैं। हमने उससे पूछा कि सोनभद्र में कहां से आए हैं, तो उसने कुछ बताया। हम लोग समझ नहीं पाए। उससे पूछे कि यहां क्यों आए हो। उसने बोला कि गांव के एक आदमी को सांप काट लिया है। हमने बोला कि बनारस से कितनी दूर है आप लोगों का गांव। उन्होंने बताया कि ३६० किलोमीटर। मैं पूछा कि क्या कोई अस्पताल नहीं है। तो पता चला कि सांप के काटे का इलाज सिर्फ चांदमारी में ही होता है।
हम लोग दंग थे। सोच रहे थे कि अच्छा हुआ सोनभद्र में पैदा नहीं हुए। नहीं तो गांव के ४६ लोगों के साथ आना पड़ता। ऐसा इसलिए क्योंकि उन लोगों ने बताया कि अगर यह व्यक्ति मर जाएगा तो उसे गंगा में बहाना पड़ेगा। इसके लिए केले का पेड़ भी वो लोग साथ लाए थे। हम लोग थोड़ी देर तक बात करते रहे। इतने में रामधनी चाचा को होश आ गया और हम चल दिए। यह सोचते हुए कि क्या हम ऐसे प्रदेश में रहने के लिए हैं, जहां लोगों को दवा न मिल सके। लोगों को कानून से न्याय न मिल सके। आप लोगों को बताना चाहूंगा कि चाणक्य ने कहा था कि उस देश को छोड़ देना चाहिए जहां न्याय और दवा न मिले।
(बहुत दिनों बाद कुछ लिख रहा हूं। शायद आप लोगों को गैप अच्छा न लगे। लेकिन अब कोशिश है कि लगातार लिखूं। क्योंकि मैं रायपुर आ गया हूं। यहां लिखने के लिए बहुत कुछ है। नक्सल से लेकर दो रुपए किलो का चावल तक।)
मैं गांव गया था। किसी दोस्त की शादी थी। पिछले साल दिसंबर का महीना था। जल्द ही एक बार फिर से आ जाएगा दिसंबर। हमारे गांव में थोड़ी-थोड़ी ठंड शुरू हो जाती है। हमारे रायपुर में दिसंबर आने को है, लेकिन ठंड ने दस्तक तक नहीं दी। बनारस के पास गाजीपुर रोड पर हमारा गांव बर्थरा कला है। मुझे याद है कि हमारे गांव में किसी भी व्यक्ति ने कोई बड़ा काम नहीं किया। बड़ा काम का मतलब ऐसा जो राष्ट्रीय चरित्र का हो। ऐसा काम जिसे लोग याद करने के लिए हमारे गांव को याद करें। यह मैं अपने गांव की बुराई नहीं कर रहा हूं। जब भी मैं अपने गांव के बारे में सोचता हूं तो लगता है कि हमारे गांव को कुछ और आगे होना चाहिए। ठीक उसी तरह जैसे रायपुर से ठंड के मामले में आगे है।
रायपुर राजधानी है। बनारस को भी राजधानी बनाने की तैयारी चल रही है। मायावती के तीन प्रदेश के कांसेप्ट को अगर केंद्र सरकार मान लेगी तो पूर्वांचल की राजधानी बनारस की होगी। बनारस भी बहुत बड़ा है। एक बार तो उत्तर प्रदेश सरकार ने उसे काटकर तीन जिले बना दिए। सोचों इतना बड़ा जिला था हमारा बनारस। इसी जिले के सबसे दूर के इलाके से एक आदमी रात ११ बजे बनारस में आया। हम लोग भी पहुंचे थे। यूपी कालेज के बाजू में चांदमारी अस्पताल में सांप काटने का इलाज होता है। यूपी कालेज राजा उदय प्रताप सिंह के नाम पर रखा गया है। यहां के लिए प्रचलित है कि ठाकुर ही अध्यक्ष बनेगा। वैसे इस मिथक को एक ब्राह्मण ने तोड़ दिया। शायद उसे लोग बाबा बुलाते थे। बिहार में ब्राह्मणों को बाबा बोला जाता है। खैर भटककर बिहार पहुंचने से पहले चांदमारी वापस लौटते हैं।
दिसंबर की ठंडी रात। भाई साहब की सफारी गाड़ी में हम पांच लोग सवार थे। दो लोगों को और बठाने की बात आई तो लोगों ने नाक भौं सिकोडना शुरू कर दिया। बोल रहे थे कि बैठेंंगे कहां। रात को रामधनी चाचा को सांप ने काट लिया था। हम लोग उनको दिखाने चांदमारी जा रहे थे। जैसे ही हम चांदमारी पहुंचे, डाक्टर ने रामधनी चाचा को कमरे में डाल दिया। बाकी लोगों को बोला कि आप लोग बाहर बैठें। हम सभी लोग बाहर आ गए। थोड़ी देर में एक गाड़ी आई। गाड़ी थी टाटा ४०७। गाड़ी से एक-एक करके लोग बाहर निकलने लगे। थोड़ी देर में गाड़ी से ४६ लोग बाहर निकले। यह सभी पीछे बैठे थे। गाड़ी में आगे सिर्फ ड्राइवर, गांव के सरपंच और उनके दो चेले बैठे थे।
हम सभी लोग देखकर दंग रह गए। उनसे पूछा कि कहां से आए हो। उसमें से एक आदमी ने थोड़ी अलग-विचित्र भाषा में बताया कि सोनभद्र से आए हैं। हमने उससे पूछा कि सोनभद्र में कहां से आए हैं, तो उसने कुछ बताया। हम लोग समझ नहीं पाए। उससे पूछे कि यहां क्यों आए हो। उसने बोला कि गांव के एक आदमी को सांप काट लिया है। हमने बोला कि बनारस से कितनी दूर है आप लोगों का गांव। उन्होंने बताया कि ३६० किलोमीटर। मैं पूछा कि क्या कोई अस्पताल नहीं है। तो पता चला कि सांप के काटे का इलाज सिर्फ चांदमारी में ही होता है।
हम लोग दंग थे। सोच रहे थे कि अच्छा हुआ सोनभद्र में पैदा नहीं हुए। नहीं तो गांव के ४६ लोगों के साथ आना पड़ता। ऐसा इसलिए क्योंकि उन लोगों ने बताया कि अगर यह व्यक्ति मर जाएगा तो उसे गंगा में बहाना पड़ेगा। इसके लिए केले का पेड़ भी वो लोग साथ लाए थे। हम लोग थोड़ी देर तक बात करते रहे। इतने में रामधनी चाचा को होश आ गया और हम चल दिए। यह सोचते हुए कि क्या हम ऐसे प्रदेश में रहने के लिए हैं, जहां लोगों को दवा न मिल सके। लोगों को कानून से न्याय न मिल सके। आप लोगों को बताना चाहूंगा कि चाणक्य ने कहा था कि उस देश को छोड़ देना चाहिए जहां न्याय और दवा न मिले।
(बहुत दिनों बाद कुछ लिख रहा हूं। शायद आप लोगों को गैप अच्छा न लगे। लेकिन अब कोशिश है कि लगातार लिखूं। क्योंकि मैं रायपुर आ गया हूं। यहां लिखने के लिए बहुत कुछ है। नक्सल से लेकर दो रुपए किलो का चावल तक।)
Wednesday, May 26, 2010
पैसा बचाने के 10 तरीके
ऐसे बहुत से लोग है जिनकी आमदनी अच्छी-खासी है, लेकिन उन्हे पता भी नहीं चलता और आश्चर्यजनक ढंग से उनका पैसा समाप्त हो जाता है, जबकि बहुत से काम और अगली आमदनी के कई दिन बाकी रहते हैं। यह सिर्फ आपकी जेब...ऐसे बहुत से लोग है जिनकी आमदनी अच्छी-खासी है, लेकिन उन्हे पता भी नहीं चलता और आश्चर्यजनक ढंग से उनका पैसा समाप्त हो जाता है, जबकि बहुत से काम और अगली आमदनी के कई दिन बाकी रहते हैं। यह सिर्फ आपकी जेब में छेद होने से ही नही, आपकी गलत आदतों का भी परिणाम होता है। जानिए बचत के कुछ टिप्स-
[1. बाहर खाने से बचें]
अगर बार-बार बाहर खाने की आपकी आदत हो, तो कोशिश करके इससे बचें। बाहर का खाना जहां महंगा होता है, वहीं नुकसानदेह भी। आपका बजट अक्सर इससे भी गड़बड़ाता है।
[2. यात्रा व्यय पर नियंत्रण]
अगर आपके शहर में बस की बेहतर सुविधा उपलब्ध है, तो रोज ऑटो या टैक्सी पकड़ने के स्थान पर बस से आने-जाने की आदत डालें।
[3. चाय-कॉफी पर नियंत्रण]
आजकल ज्यादातर कार्यालयों में कर्मचारियों के लिए डिस्पेंसिंग मशीन चाय-कॉफी के लिए लगी होती है। मशीन वाली चाय-कॉफी पीना अपनी आदत बनाएं। बाहर से ऑर्डर पर ऐसी चीजें बार-बार लेने से, पता तो नहीं चलता पर पैसा काफी खर्च हो जाता है।
[4. लंच लेकर जाएं]
आजकल ऐसे इलेक्ट्रिक टिफिन आ रहे है जिनमें रखा खाना आप खाने से पहले चंद मिनटों में गरम कर सकते है। कुछ कार्यालयों में माइक्रोवेव होते है या किचेन में खाना गर्म करने की व्यवस्था होती है। इसे अपनाकर भी आप पैसा बचा सकती है।
[5. शॉपिंग पर नियंत्रण]
पैसा हाथ में आते ही यह जरूरी नहीं कि आप शॅापिंग पर निकल पड़े। इससे बेहतर होगा कि आप पहले आवश्यक सामान की लिस्ट बनाएं और उन्हे ही खरीदें।
[6. घर पर सौंदर्य की देखरेख]
आमतौर पर समय या श्रम को बचाने के लिए बाल धोने तक के लिए आप पार्लर चल देती है। यदि छोटे-मोटे काम घर पर ही कर लें तो आप बहुत सा पैसा बचा पाएंगी।
[7. सस्ता विकल्प देखें]
बहुत दिखावे वाले अत्यंत महंगे रेस्तरां में डिनर करने से जहां तक हो सके बचें। जरूरी नहीं कि महंगे होटलों व रेस्तरां में ही खाना अच्छा होता है, कई छोटे रेस्तरां भी सफाई व क्वालिटी का ध्यान रखते है।
[8. रिंगटोन लोड न करे]
बहुत से लोग मोबाइल हाथों में होने पर अपने पर नियंत्रण नहीं रख पाते। उनके हाथ लगातार सक्रिय रहते है और इसीकारण वे अक्सर जाने-अनजाने नई से नई रिंगटोन लोडकर अपना बिल बढ़ाते रहते है।
[9. फिल्म देखनी हो तो]
यदि फिल्म देखनी हो, तो सीडी या डीवीडी लाकर घर पर फिल्म देखें। आज यदि दो लोग भी थियेटर पर फिल्म देखने जाते है, तो चार-पांच सौ रुपए खर्च हो जाते हैं। आप चाहें, तो किसी वीडियो लाइब्रेरी से सीडी लाकर भी फिल्म देख सकती हैं।
[10. यात्रा में बचत]
जब भी वीकएंड या किसी यात्रा पर जाना हो, तो कॉमिक या नॉवल घर से ले जाएं। लंबी यात्रा पर रास्ते में महंगी किताब खरीदने से बचेंगे और अपना पैसा बचा पाएंगे।
याद रखिए बूंद-बूंद से सागर बनता है। आप भी अपने सागर को बृहद बनाने की तरफ प्रयास कर सकती है।
[1. बाहर खाने से बचें]
अगर बार-बार बाहर खाने की आपकी आदत हो, तो कोशिश करके इससे बचें। बाहर का खाना जहां महंगा होता है, वहीं नुकसानदेह भी। आपका बजट अक्सर इससे भी गड़बड़ाता है।
[2. यात्रा व्यय पर नियंत्रण]
अगर आपके शहर में बस की बेहतर सुविधा उपलब्ध है, तो रोज ऑटो या टैक्सी पकड़ने के स्थान पर बस से आने-जाने की आदत डालें।
[3. चाय-कॉफी पर नियंत्रण]
आजकल ज्यादातर कार्यालयों में कर्मचारियों के लिए डिस्पेंसिंग मशीन चाय-कॉफी के लिए लगी होती है। मशीन वाली चाय-कॉफी पीना अपनी आदत बनाएं। बाहर से ऑर्डर पर ऐसी चीजें बार-बार लेने से, पता तो नहीं चलता पर पैसा काफी खर्च हो जाता है।
[4. लंच लेकर जाएं]
आजकल ऐसे इलेक्ट्रिक टिफिन आ रहे है जिनमें रखा खाना आप खाने से पहले चंद मिनटों में गरम कर सकते है। कुछ कार्यालयों में माइक्रोवेव होते है या किचेन में खाना गर्म करने की व्यवस्था होती है। इसे अपनाकर भी आप पैसा बचा सकती है।
[5. शॉपिंग पर नियंत्रण]
पैसा हाथ में आते ही यह जरूरी नहीं कि आप शॅापिंग पर निकल पड़े। इससे बेहतर होगा कि आप पहले आवश्यक सामान की लिस्ट बनाएं और उन्हे ही खरीदें।
[6. घर पर सौंदर्य की देखरेख]
आमतौर पर समय या श्रम को बचाने के लिए बाल धोने तक के लिए आप पार्लर चल देती है। यदि छोटे-मोटे काम घर पर ही कर लें तो आप बहुत सा पैसा बचा पाएंगी।
[7. सस्ता विकल्प देखें]
बहुत दिखावे वाले अत्यंत महंगे रेस्तरां में डिनर करने से जहां तक हो सके बचें। जरूरी नहीं कि महंगे होटलों व रेस्तरां में ही खाना अच्छा होता है, कई छोटे रेस्तरां भी सफाई व क्वालिटी का ध्यान रखते है।
[8. रिंगटोन लोड न करे]
बहुत से लोग मोबाइल हाथों में होने पर अपने पर नियंत्रण नहीं रख पाते। उनके हाथ लगातार सक्रिय रहते है और इसीकारण वे अक्सर जाने-अनजाने नई से नई रिंगटोन लोडकर अपना बिल बढ़ाते रहते है।
[9. फिल्म देखनी हो तो]
यदि फिल्म देखनी हो, तो सीडी या डीवीडी लाकर घर पर फिल्म देखें। आज यदि दो लोग भी थियेटर पर फिल्म देखने जाते है, तो चार-पांच सौ रुपए खर्च हो जाते हैं। आप चाहें, तो किसी वीडियो लाइब्रेरी से सीडी लाकर भी फिल्म देख सकती हैं।
[10. यात्रा में बचत]
जब भी वीकएंड या किसी यात्रा पर जाना हो, तो कॉमिक या नॉवल घर से ले जाएं। लंबी यात्रा पर रास्ते में महंगी किताब खरीदने से बचेंगे और अपना पैसा बचा पाएंगे।
याद रखिए बूंद-बूंद से सागर बनता है। आप भी अपने सागर को बृहद बनाने की तरफ प्रयास कर सकती है।
Wednesday, May 19, 2010
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